Pages

Sunday, July 29, 2012

हो कभी ना मन विकल..!!

जब आज है सुंदर सृजन, 
मन घूमता है क्यों विकल?
तम को ह्रदय में बांध जड़,
लखता नहीं क्यों ज्योति पल?

पलकों तले संसार रच
ढल गए दो-चार पल,
आँखें ठगी-सी रह गयीं
देख विधि का कलित छल।

एक मीठी रागिनी में
सुर उठे जब दूर से,
बंध गए विश्वास  सारे
सरगमों में गूंज के।

गुनगुनी सी धूप सिमटी
सांझ ने करवट बदल ली,
कालिमा दर पर्त पसरी
नींद आँखों में कसकती।

राह में हैं शूल चुभते
फूटते हैं पग के छाले,
रिस भी जाती है बिवाई
आह सी मिलती कमाई।

टिमटिमा कर रात रोती
पंखुरी भरती  है साखी,
पूछ लो धरती-गगन से
राह वह चलती ही जाती।

चक्र वर्तुल काल का है
भूत से भवितव्य तक,
रख धनात्मक भाव, री सखि!
हो कभी ना मन विकल..!!

Saturday, June 23, 2012

लौट आ, ओ प्रात!

लौट आ, ओ प्रात!
बुझ रही है लौ दिये की ताक पर।


कृष्ण-पक्ष की रात दोहरी हो रही,
चाँदनी किस ओर  जाने छिप गयी!
क्षीण होती लौ दिये  की कांपती,
सज रही अर्थी मधुरमय साध की।


झर रहा है फूल हरसिंगार का,
कर रहा है मन तनिक श्रृंगार-सा!
राह से गुजरा पथिक यह सोचता-
"आह! यह सुरभित कहाँ डोला चला?"


लौट आ, ओ प्रात! आँखें खोल दे,
राह डग भरता पथिक यह जान ले,
है उसी की कामिनी सोयी चिता पर।
बुझ रही है लौ दिये  की ताक  पर...