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Saturday, June 23, 2012

लौट आ, ओ प्रात!

लौट आ, ओ प्रात!
बुझ रही है लौ दिये की ताक पर।


कृष्ण-पक्ष की रात दोहरी हो रही,
चाँदनी किस ओर  जाने छिप गयी!
क्षीण होती लौ दिये  की कांपती,
सज रही अर्थी मधुरमय साध की।


झर रहा है फूल हरसिंगार का,
कर रहा है मन तनिक श्रृंगार-सा!
राह से गुजरा पथिक यह सोचता-
"आह! यह सुरभित कहाँ डोला चला?"


लौट आ, ओ प्रात! आँखें खोल दे,
राह डग भरता पथिक यह जान ले,
है उसी की कामिनी सोयी चिता पर।
बुझ रही है लौ दिये  की ताक  पर...