गंगा! यह तेरा उद्वेलन है या मेरे अंतर्मन का?
उठते-गिरते भाव मेरे हैं या नर्तन है लहरों का?
इंगित करता आरोह लहर का
जीवन के उत्कर्षों को,
व्याकुल होता तब स्निग्ध हास
अधरों पर तिर जाने को।
गंगा! यह कल-कल नाद हर्ष है या विषाद मेरे मन का?
अस्फुट स्वर यह मेरा है या गायन है लहरों का?
भय क्षण प्रतिक्षण बढ़ता जाता
देख लहर के अवरोहों को,
स्तब्ध, शांत, क्लांत मन मेरा
ढूंढें जल-खंडों में अपनों को।
गंगा! यह तेरा सत्य-बोध है या निबोध मेरे मन का?
विक्षिप्त नयन ही मेरे हैं या तिरोधान है लहरों का?
नूपुर-ध्वनि मेरी आई है
विस्मृत करने पदचापों को,
गंगा! मत मूक बनो आओ
खुद में मुझे समाने को।
गंगा! मेरा अस्तित्व मिटा या मिला तुझे इतिहास नया?
शोर उठा, क्रंदन मेरा है या अट्टहास है लहरों का?
उठते-गिरते भाव मेरे हैं या नर्तन है लहरों का?
इंगित करता आरोह लहर का
जीवन के उत्कर्षों को,
व्याकुल होता तब स्निग्ध हास
अधरों पर तिर जाने को।
गंगा! यह कल-कल नाद हर्ष है या विषाद मेरे मन का?
अस्फुट स्वर यह मेरा है या गायन है लहरों का?
भय क्षण प्रतिक्षण बढ़ता जाता
देख लहर के अवरोहों को,
स्तब्ध, शांत, क्लांत मन मेरा
ढूंढें जल-खंडों में अपनों को।
गंगा! यह तेरा सत्य-बोध है या निबोध मेरे मन का?
विक्षिप्त नयन ही मेरे हैं या तिरोधान है लहरों का?
नूपुर-ध्वनि मेरी आई है
विस्मृत करने पदचापों को,
गंगा! मत मूक बनो आओ
खुद में मुझे समाने को।
गंगा! मेरा अस्तित्व मिटा या मिला तुझे इतिहास नया?
शोर उठा, क्रंदन मेरा है या अट्टहास है लहरों का?
मेरे मन के अभियोग रमे
तेरे तल की गह्वरता में,
जीवन का विस्तार दिखा
तेरी गति की सत्वरता में।
गंगा! यह मेरा कल्प-विचर है या सुयोग तेरे सत् का?
चिर-विश्वास अटल मेरा है या विधान है यह विधि का?
मैं मूक रहूँ या कुछ कह लूँ
बोलो गंगे! क्या कहती हो?
अपने अन्तर के मंथन का
नवनीत लिए तुम बहती हो।
गंगा! बहती ले स्निग्ध भाव तू या कषाय मेरे मन का?
सागर से मिल पूछ बताना आदि-अंत इस जीवन का.....
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति है......आशा है जल्दी ही आपकी दूसरी रचनाये भी पढने को मिलेंगी....शुभकामनाये.
ReplyDeleteगंगा! मत मूक बनो आओ
ReplyDeleteखुद में मुझे समाने को l
गंगा! मेरा अस्तित्व मिटा या मिला तुझे इतिहास नया?
शोर उठा, क्रंदन मेरा है या अट्टहास है लहरों का?
aapka lekhan anubhutiyon ki gehrayee liye hai, yah anubhutiyon ki ganga aksar bahir se andar jati hai, taki andar ka khanan kar sake us star tak jahan, na shabd ho na nishabd, na gyan ho na agyan, bas ho apna satva....aaur kuchh khanan karne ke liye na rahe. Bas....achha laga. salam !
bhaut ghari abhivayakti hai
ReplyDeletesubhkamana
behad khubsurat kavita......kaavy ke kalewar main sugathit bhaav.....dil ko choo gaye aur itne saras kee padhte waqut shabd nazron se zubaan tak aur dil kee gehrayee tak ek hi lay pe chal rahe the......
ReplyDeletekhubsurat rachna!
...Ehsaas!
ये पापी भगत तुझे माता कहे
ReplyDeleteये ढोंगी जगत तुझे देवी कहे
बस पाप जो इनके तू धोती रहे
नहीं धोये तू चाहे तो रोती रहे
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति है......behad khubsurat kavita......dil ko choo gaye aur itne saras kee padhte waqut shabd nazron se zubaan tak aur dil kee gehrayee tak ek hi lay pe chal rahe the......
ReplyDeletechinmay
Shabd nahi mil rahe prashansha ke liye.......adbhut aur adviteey rachna.....
ReplyDeleteMadam your poetry is Interasting and most Remarkable.
ReplyDeleteVary good poetry.
ReplyDeleteA vary good poetry.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर🙏💐
Delete