कल थी चितहारी शाम, मोहिनी मतवाली शाम
कागा की टेर सुन,
मन मेरा विहस पड़ा!
नीर भरी बदली झुक आई आँगन में
आस-पौध सिंचन को,
मन मेरा पुलक उठा!
दूर कहीं अमराई से चला पवन का इक झोंका
दिग्वधुओं ने टोका,
मन मेरा सहम उठा!
गोधूलि अब बीत गई, रात सघन जग छाई
हो अवगुंठित अंचल में,
मन मेरा सिमट गया!
रक्ताभ हुआ नभस्थल, सारथी ने रथ हाँका
सो रहा विहान जागा,
मन मेरा फिर सजग हुआ!
मध्य गगन तप्त हुआ, वासर हवि-कुण्ड हुआ
विरह-हवि प्रक्षेपण से,
मन मेरा सुलग उठा!
दिन भी अब रीत गया, फिर गोधूलि नभ छाई
सांध्य-दीप जलने से,
मन मेरा झुलस गया!
फिर भी गत चिंतन में, काल-गति-नर्तन की
नूपुर की ध्वनि सुन,
मन मेरा विहस पड़ा!
कल थी चितहारी शाम, मोहिनी मतवाली शाम
कागा की टेर सुन,
मन मेरा विहस पड़ा!
मध्य गगन तप्त हुआ, वासर हवि-कुण्ड हुआ
ReplyDeleteविरह-हवि प्रक्षेपण से,
मन मेरा सुलग उठा!
bahut khoob.madhyanh aaur virah...superb!