कच्ची औ' छोटी सी
जीवन की डोरी से,
जन-जन में विघटित
संबंधों को कैसे
बाँध सकूँगी?
स्पंदन औ' आवाजें
नाड़ी औ' जिह्वा तक
आ-आ कर
थक-थक सी जाती हैं,
डूबती सी साँसे हैं,
अविच्छिन्न रजनी,
मेघाच्छादित दिन है,
दूर छिपा बैठा है
अन्तर्यामी भी,
चिंताकुल, स्याह पड़ी,
पथराई आंखों से
अन्तस्स्थल में अंकित
आस्थाओं को कैसे
आँक सकूँगी?
संबंधों को कैसे
बाँध सकूँगी?
bahut aantrik si abhivyakti.आस्थाओं आस्थाओं को कैसे आँक सकूँगी?
ReplyDeleteसंबंधों को कैसे बाँध सकूँगी?
Aankana aaur bandhna kyon ?
Unless you live a relation, you cannot define it..similarly unless you feel a relation you cannot write it..a mature poem. Congrats !!!
ReplyDeleteनीद उडे जब अविच्छिन्न रजनी
ReplyDeleteपलुकित सपनों में अंकीत सजनी ...
बहुत खूब ..अच्छी है रचना
bahut sundar..keep on writing and sharing
ReplyDeleterishton ko jode rakhne ki peeda to wahee jaan saktaa hai jiske dil main sachmuch wahee kasaq ho.
ReplyDeletebahut khoob !
Waw! Very Nice 1. no more words 2 describe.
ReplyDeleteअच्छी है रचना
ReplyDeletedil ke jazbaaton ki syaahi se kalam ne likha hai,bahut achhi lagi
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