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Saturday, September 20, 2008

दस्तक

दस्तक,
एक ऐसी आवाज़!
जो मन के
विशाल दरवाजे को भी
बरबस ही झकझोर देती है।
रात का सन्नाटा हो
या सुनसान दोपहरी,
जगमगाती सांझ हो
या प्रात हो सुनहरी,
रुके हुए पग को भी
चलाने को मजबूर कर देती है
उस ओर
जिधर दस्तक हो रही है।
मन!
जो नहीं जानता,
दरवाजे के उस पार का आगंतुक
कौन है?
उसका अभीष्ट!?
या चिर-परिचित
विषाद!?
फिर भी,
पट खोलने को
विह्वल हो उठता है।
पलक झपकते ही
दिखायी पङता है
एक संयोग-
हाथ की अंगुली
और सिटकनी का।
फिर
दरवाजे के उस पार की
वास्तविकता......
सामने होती है।
यथार्थतः यही एक भेंट होती है
हर एक 'दस्तक' की।

3 comments:

  1. nice maine socha bhi nahin tha ki hum kabhi apne yaadoon ko is tareh kisi ke sath share bhi kar sakte hai

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  2. wallah! yeh dastak to hamare daar par bhi suni gayi.
    great!

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  3. मुझे धीरे से देना तू दस्तक
    मेरा बैरी बलम यहाँ होए
    दरवज्जे पे करना ना हल्ला
    ये जालिम साथ में सोये

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