निगाहें ढूँढती हैं क्या
कहाँ पर, कैसे समझूँ मैं?
बियाबाँ-सी हुई बस्ती में
किसको अपना समझूँ मैं?
किया तामीर जिसको भी
वही हर हाल पे बिखरा,
बता तकदीर तू मेरी
तुझे कैसे संवारूँ मैं?
गिरे गेसू, घिरे बादल
आंसू की हुई वर्षा,
छिपा रवि रात के पीछे
किरण कैसे सजाऊँ मैं?
चमन के ज़र्रे-ज़र्रे में
हुआ गुंजार भौंरों का,
कहीं रोई कली कोई
रुदन कैसे सुनाऊं मैं?
अचल के बीच से कटकर
गिरा एक खंड पत्थर का,
कराहेगा वहाँ कोई
ये कैसे जान पाऊं मैं?
निगाहें ढूँढती हैं क्या
कहाँ पर, कैसे समझूँ मैं?
बियाबाँ-सी हुई बस्ती में
किसको अपना समझूँ मैं?
कहाँ पर, कैसे समझूँ मैं?
बियाबाँ-सी हुई बस्ती में
किसको अपना समझूँ मैं?
गिरे गेसू, घिरे बादल
ReplyDeleteआंसू की हुई वर्षा,
छिपा रवि रात के पीछे
किरण कैसे सजाऊँ मैं?
aapke shabd dil ko choote hain.bahut acha likhti hain aap
badhai
nira
बियाबाँ-सी हुई बस्ती में
ReplyDeleteकिसको अपना समझूँ मैं?
yah talash bahir kyon ? isi rachna ke shabd agar hum apne 'thoughts' aaur unse nizat paane ke 'process' ke sandarbh men dekhen..yane 'maan' ke janib....aek chamtkar sa ghatit hoga, abhivyakti kisi aaur safar par lekar chal degi.aapke jawab ka intezar rahega.
mehsoos kiya hai, kya ? nahin vyakt kar sakti.
हर एक पंक्ति दिल को छू जाती है.
ReplyDelete