Pages

Friday, September 26, 2008

संबंधों को कैसे बाँध सकूँगी?

कच्ची औ' छोटी सी
जीवन की डोरी से,
जन-जन में विघटित
संबंधों को कैसे
बाँध सकूँगी?
स्पंदन औ' आवाजें
नाड़ी औ' जिह्वा तक
आ-आ कर
थक-थक सी जाती हैं,
डूबती सी साँसे हैं,
अविच्छिन्न रजनी,
मेघाच्छादित दिन है,
दूर छिपा बैठा है
अन्तर्यामी भी,
चिंताकुल, स्याह पड़ी,
पथराई आंखों से
अन्तस्स्थल में अंकित
आस्थाओं को कैसे
आँक सकूँगी?
संबंधों को कैसे
बाँध सकूँगी?

ले किसका नाम?

रेती में धूप ढले
सिन्दूर में शाम
सागर में रात ढले
ले किसका नाम?

छिटकी-सी खपरैलें
बिखरे-से फूस,
गाँव की मडैया में
सिमटी-सी भू,
खूँटे में चौपाये
सूखी-सी नाँद,
पनिहारिन राह तके
ले किसका नाम?

पिछवाड़े फूल झरे
आँगन में धूल,
द्वारे पर उग आए
कांटे, बबूल।
दीवट पर आस धरे
सांकल पे धाम
देहरी दो नैन जले
ले किसका नाम?

बतियाते मौन रहे
बीते हर जून,
बाबा के हुक्के में
शेष नहीं धूम।
चूल्हे बिन अंगारे
घूरों पे राख,
धनिया गुहार करे
ले किसका नाम?

Tuesday, September 23, 2008

क्या कहिये....

ग़म ग़लत करने को निकले हुए घर से बेघर
खुले शहर में ज़ंजीरे-पा को क्या कहिये।

चमन को नाज़ है जिनकी तनी हुई शै पर
उन दरख्तों की झुकी-सी अदा को क्या कहिये।

खुशी को तौल तराजू पे बेचते हैं ज़हर
भरे बाज़ार की रंगीनियों को क्या कहिये।

लगा के आग चमनज़ारों में आब देते हैं
खुदा के नूर की दस्तूर-ए-दवा क्या कहिये।

ज़ुबाँपे हौंसले, नज़रों में परिदों-सी उड़न
वक़्त की आड़ में बहती हवा को क्या कहिये।

किरण कैसे सजाऊँ मैं?

निगाहें ढूँढती हैं क्या
कहाँ पर, कैसे समझूँ मैं?
बियाबाँ-सी हुई बस्ती में
किसको अपना समझूँ मैं?

किया तामीर जिसको भी
वही हर हाल पे बिखरा,
बता तकदीर तू मेरी
तुझे कैसे संवारूँ मैं?

गिरे गेसू, घिरे बादल
आंसू की हुई वर्षा,
छिपा रवि रात के पीछे
किरण कैसे सजाऊँ मैं?

चमन के ज़र्रे-ज़र्रे में
हुआ गुंजार भौंरों का,
कहीं रोई कली कोई
रुदन कैसे सुनाऊं मैं?

अचल के बीच से कटकर
गिरा एक खंड पत्थर का,
कराहेगा वहाँ कोई
ये कैसे जान पाऊं मैं?

निगाहें ढूँढती हैं क्या
कहाँ पर, कैसे समझूँ मैं?
बियाबाँ-सी हुई बस्ती में
किसको अपना समझूँ मैं?

मन मेरा विहस पड़ा!

कल थी चितहारी शाम, मोहिनी मतवाली शाम
कागा की टेर सुन,
मन मेरा विहस पड़ा!
नीर भरी बदली झुक आई आँगन में
आस-पौध सिंचन को,
मन मेरा पुलक उठा!
दूर कहीं अमराई से चला पवन का इक झोंका
दिग्वधुओं ने टोका,
मन मेरा सहम उठा!
गोधूलि अब बीत गई, रात सघन जग छाई
हो अवगुंठित अंचल में,
मन मेरा सिमट गया!
रक्ताभ हुआ नभस्थल, सारथी ने रथ हाँका
सो रहा विहान जागा,
मन मेरा फिर सजग हुआ!
मध्य गगन तप्त हुआ, वासर हवि-कुण्ड हुआ
विरह-हवि प्रक्षेपण से,
मन मेरा सुलग उठा!
दिन भी अब रीत गया, फिर गोधूलि नभ छाई
सांध्य-दीप जलने से,
मन मेरा झुलस गया!
फिर भी गत चिंतन में, काल-गति-नर्तन की
नूपुर की ध्वनि सुन,
मन मेरा विहस पड़ा!
कल थी चितहारी शाम, मोहिनी मतवाली शाम
कागा की टेर सुन,
मन मेरा विहस पड़ा!

Saturday, September 20, 2008

ज़िन्दगी का सफर...

ज़िन्दगी का सफर ख़त्म होने लगा
अब हमारे सपन में थकन आ गई,
मैंने चाहा अभी और जीना मगर
मेरी साँसों में ग़म की घुटन आ गई।

रात बढ़ने लगी, चाँद घटने लगा
चलते-चलते बहारों को नींद आ गई,
मैं जगी रात भर देखती ही रही
कैसे बुझती गई चाँद की चाँदनी।

रह गए अर्ध-निर्लिप्त मेरे नयन
स्वप्न ने थाम बाहें मेरी छोड़ दीं,
हो गयीं बावरी श्याम पलकें मेरी
ज़िन्दगी मेरी बन कर धुंआ उड़ चली।

तन तपन में झुलसता रहा उम्र भर
अश्रु की बूँद से अब फफोले पड़े,
घाव बढ़ता गया, दर्द बढ़ता गया
मैं सिसकती रही, उम्र घटती रही।

याद लेकर ही जी लूँ कोई उम्र भर
हर कथा बन गई पर व्यथा शाम की,
भूलने को तपिश मैंने पी ही ली मै
वो कसक बन हलक में उतरती रही।

दस्तक

दस्तक,
एक ऐसी आवाज़!
जो मन के
विशाल दरवाजे को भी
बरबस ही झकझोर देती है।
रात का सन्नाटा हो
या सुनसान दोपहरी,
जगमगाती सांझ हो
या प्रात हो सुनहरी,
रुके हुए पग को भी
चलाने को मजबूर कर देती है
उस ओर
जिधर दस्तक हो रही है।
मन!
जो नहीं जानता,
दरवाजे के उस पार का आगंतुक
कौन है?
उसका अभीष्ट!?
या चिर-परिचित
विषाद!?
फिर भी,
पट खोलने को
विह्वल हो उठता है।
पलक झपकते ही
दिखायी पङता है
एक संयोग-
हाथ की अंगुली
और सिटकनी का।
फिर
दरवाजे के उस पार की
वास्तविकता......
सामने होती है।
यथार्थतः यही एक भेंट होती है
हर एक 'दस्तक' की।

Wednesday, September 17, 2008

एक प्रश्न : गंगा से

गंगा! यह तेरा उद्वेलन है या मेरे अंतर्मन का?
उठते-गिरते भाव मेरे हैं या नर्तन है लहरों का?
इंगित करता आरोह लहर का
जीवन के उत्कर्षों को,
व्याकुल होता तब स्निग्ध हास
अधरों पर तिर जाने को।
गंगा! यह कल-कल नाद हर्ष है या विषाद मेरे मन का?
अस्फुट स्वर यह मेरा है या गायन है लहरों का?
भय क्षण प्रतिक्षण बढ़ता जाता
देख लहर के अवरोहों को,
स्तब्ध, शांत, क्लांत मन मेरा
ढूंढें जल-खंडों में अपनों को।
गंगा! यह तेरा सत्य-बोध है या निबोध मेरे मन का?
विक्षिप्त नयन ही मेरे हैं या तिरोधान है लहरों का?
नूपुर-ध्वनि मेरी आई है
विस्मृत करने पदचापों को,
गंगा! मत मूक बनो आओ
खुद में मुझे समाने को।
गंगा! मेरा अस्तित्व मिटा या मिला तुझे इतिहास नया?
शोर उठा, क्रंदन मेरा है या अट्टहास है लहरों का?
मेरे मन के अभियोग रमे
तेरे तल की गह्वरता में,
जीवन का विस्तार दिखा
तेरी गति की सत्वरता में।
गंगा! यह मेरा कल्प-विचर है या सुयोग तेरे सत् का?
चिर-विश्वास अटल मेरा है या विधान है यह विधि का?
मैं मूक रहूँ या कुछ कह लूँ
बोलो गंगे! क्या कहती हो?
अपने अन्तर के मंथन का
नवनीत लिए तुम बहती हो।
गंगा! बहती ले स्निग्ध भाव तू या कषाय मेरे मन का?
सागर से मिल पूछ बताना आदि-अंत इस जीवन का.....