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Tuesday, September 23, 2008

क्या कहिये....

ग़म ग़लत करने को निकले हुए घर से बेघर
खुले शहर में ज़ंजीरे-पा को क्या कहिये।

चमन को नाज़ है जिनकी तनी हुई शै पर
उन दरख्तों की झुकी-सी अदा को क्या कहिये।

खुशी को तौल तराजू पे बेचते हैं ज़हर
भरे बाज़ार की रंगीनियों को क्या कहिये।

लगा के आग चमनज़ारों में आब देते हैं
खुदा के नूर की दस्तूर-ए-दवा क्या कहिये।

ज़ुबाँपे हौंसले, नज़रों में परिदों-सी उड़न
वक़्त की आड़ में बहती हवा को क्या कहिये।

4 comments:

  1. खुशी को तौल तराजू पे बेचते हैं ज़हर
    भरे बाज़ार की रंगीनियों को क्या कहिये।

    ...api lekhni me jadu ka sa asar hai......keep posting.best wishes.

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  2. ज़ुबाँपे हौंसले, नज़रों में परिदों-सी उड़न
    वक़्त की आड़ में बहती हवा को क्या कहिये।

    kya kahiye ? har she'r men dil ki rangat, aankhen band dil ke dekhe ko kya kahiye.

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  3. भरे बाजार लूटते जो कफ़न
    उनके कर्मो कों क्या कहीये ..

    भाव कों बांधा है बहुत अच्छी तरह आपने

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